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मैगी फिर लौटी ?

deepti saxena
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अभी पिछले दिनों न्यूज़ में सुना की मैगी मारकेट में वापस आ रही है. विज्ञापन जगत ने फिर ज़ोर पकड़ा इस बार ” माँ” कहती सुनाई दी की “मैगी ” भी पास हो गयी और मैं भी. अच्छी तैयारी है मैगी की क्योकि हमारे देश में हम सबसे ज्यादा सम्मान माँ का ही करते है . रात हो या दिन बच्चो के लिए तो “माँ ” की बात ही सबसे ज्यादा सही होती है. पर कुछ दिनों पहले जो कुछ हम लोगो ने सुना वो क्या था? “मैगी” के जुलूस निकाले गए. यहाँ तक देश के “अभिनेता “और अभिनेत्रियों को भी सवालो के कटघरे में खड़ा कर दिया गया .
सबने फ़ास्ट फ़ूड का आगे बढ़ कर विरोध किया . तो फिर अब क्यों विज्ञापन जगत में बार बार यह आ रहा है की आपकी मैगी सेफ थी सेफ है. क्या वो सिर्फ और सिर्फ कोई स्टंट था? हमारा देश सिर्फ संस्कृति के लिए ही नहीं बल्कि विज्ञानं और योग के लिए भी जाना जाता है . वो कहावत तो सुनी ही होगी सबने की”स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग “का निवास होता है . हमारी परम्परा में हम भोजन को सबसे ज्यादा सम्मान देते है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारे भोजन में जितनी विभिन्ताये है, उतना ही भोजन के प्रति सम्मान भी, इसलिए शायद हम औरत को “अन्नपूर्णा ” भी कहते है. आप खुद इतिहास उठा कर पढ़िए राजा महाराजा भोजन को प्रणाम करके ही भोजन करते थे. आज भी कई गावो में जब किसान फसल की पहली बाली बोते है तब उनकी पत्निया दुआ करती है की जब कोपल फूटे फसल लहराए तो देश का हर मुँह निवाला खाए.
अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है ? क्यों हम अपनी जड़ो को अपने इतिहास को नहीं देख्ते अच्छा शुद्ध खाना वास्तव में मनुष्य की नीव है. जब आप खुद ही स्वस्थ ही नहीं होगे तो देश और राष्ट्र के क्या काम आओगे? विज्ञापन जगत अपनी कंपनी ले लिए काम करता है . मुनाफे के लिए बहुत कुछ कहा जाता है. पर ज़रूरत है हमारे खुद के जागरूक होने की “जागो ग्राहक जागो” के नारे यु ही नहीं लगाये जाते. आज इस बात की क्या गारंटी है की “मैगी” के वादे अब सच्चे है? हो सकता है दो तीन साल बाद फिर किसी टेस्ट में कुछ आ जाये? फिर नारे लगाये जाये? फिर सवाल पूछे जाये.
हम क्या हर बार सभा ही करते रहेंगे ? ज़रूरत है एक ऐसा वातावरण बनाने की जो बच्चों को सुरक्षा प्रदान करे आज का समय भागम भाग का है . आज कल पति पत्नी दोनों काम क़ाज़ी है? ऐसे में जब विज्ञापन जगत नए नए प्रलोभन लेकर सामने आता है, सृज़नात्मक विज्ञापन बना कर अपनी बात बेजोड़ तरीके से सामने रखी जाती है. एक ऐसा वातावरण बनाया जाता है जैसे “प्रोडक्ट” बनाने में कंपनी ने शिल्पकार जैसी साधना की है.
पर हमारा देश सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाने के सिद्धांत पर नही चलता , तभी तो दान देना खाना खिलाना “भंडारे” करना लंगर लगाना हमारे देश की नीव में है . क्या आप लोग “चाणक्य” को भूल गए है ?‘‘प्रजा की प्रसन्नता में ही राजा की प्रसन्नता है। प्रजा के लिए जो कुछ भी लाभकारी है, उसमें उसका अपना भी लाभ है।’’ क्या यह पंक्तिया हमारे मानस पटल पर कुछ लिखती नहीं ? क्यों बार बार हम ऐसी वस्तुओ को बढ़ावा दे जिनका सीधा सीधा फरक हमारी सेहत पर पड़ता है. अगर ” आज ” के समय की “कम्पनियो” के लिए उनके ग्राहक ही सब कुछ है . तो “मैगी” में इतने दोष कैसे निकले? और अगर आप पूरी रिसर्च करे तो पता चलेगा की “नेस्ले” का यह पहला दुष्कारी प्रोडक्ट नहीं है ? क्या इसे कथनी और करनी का फरक नहीं कहते ?
एक घरेलु उपभोगता पूरा विश्वास करता है उसके देश में बिकने वाले “प्रोडक्ट्स” पर क्योकि हम आम इंसान के पास शायद कोई लैब नहीं है टेस्ट करने की . बड़ी बड़ी “कम्पनियो” के शब्द ही हमारे लिए सब कुछ बन जाते है, हो सकता है फिर आ जाये “मैगी” पर विश्वास , पर यह ठीक है या नहीं यह मैं नहीं कह सकती, लेकिन मैंने हमारे भारत की परम्पराओ को पढ़ा और जाना है, और मेरा विश्वास है की हमारा खान पान , हमारी शैली अतुलनीय है, मैं किसी के खाना पान के खिलाफ नहीं . पर न जाने क्यों यह ज़रूर लगता है की आज की इस भाग दौड़ में मैं भी अपने बच्चो के लिए देश के बच्चों के लिए सही फैसला लू. जैसा हमारे माता पिता ने लिया . है की नहीं खुद ही बताईये ………………

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