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मानव जीवन की नीव बचपन

deepti saxena
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बचपन यह एक ऐसी सौगात है, जो सिर्फ हमारे जीवन की ही नहीं बल्कि मानवता की भी नीव है, हमारे धर्म में यह कहावत है की ” बच्चे भगवान का रूप होते है”. शायद इसलिए भी क्योकि जिस प्रकार भगवान के लिए दुनिया का हर इंसान समान है उसी प्रकार बच्चो का मन भी मासूमियत और सादगी से भरा होता है.उनकी मंन को छूने वाली शैतांनिया तो कभी चुलबुली हरकते हम सबको हमारा बचपन याद दिला देती है .
अक्सर परी राजा राज़कुमारियो की कहानियो से भरा होता है यह जीवन . कोई चिंता नहीं पलको में ही बच्चे का सारा का सारा संसार छिपा होता है, मुझे आज भी याद है मेरी दादी मुझे कहती थी की चाँद पर एक दादी रहती है इसलिए उसमे गड्ढे है, आज सुन सुन कर हसी आती है, पर बचपन का तो सच यही था, कहते है बचपन में एक बच्चे को जितना प्यार और सुरक्षा मिले वही उसका आधार बनता है, हमारे देश में तो किशन कन्हिया की कहानिया बहुत मशहूर है. शायद इसलिए क्योकि बचपन की एक खास जगह होती है. पर शायद आज की तस्वीर ना ही तो इतनी खूबसूरत है न ही इतनी प्यारी , आजकल हर किसी को अपने घर में एक डॉक्टर एक इंजीनियर चाहिए और जब से ओवर आल डेवलपमेंट की बात ने चरम पकड़ा है तब से तो कभी डांस क्लास , स्पोर्ट्स क्लास, पेन्टिंग क्लास . माँ बाप अपनी परवरिश को साबित करने में लगे रहते है जिससे उनका बच्चा किसी भी तरह से पीछे न रह जाये, ठीक भी है. पर शायद हम एक चीज़ भूल रहे है की भागने के लिए तो पूरी ज़िंदगी है, पर मिटटी से जुड़ाव , अपनों से प्यार यह सब वो बाते है, जो चाहे पैसो में न तौली जाये पर असल ज़िंदगी में इनकी एक अलग ही जगह है, जिसे नाकारा नहीं जा सकता.
अभी कुछ दिनों ही पहले ही टीवी चैनल की रिपोर्ट से पता चला की हर साल हज़ारो बच्चे महानगरो की वास्तविकता से अवगत न होते हुए भी यहाँ के गर्त में फस जाते है. भारत गर्ल चाइल्ड ट्रैफिकिंग का एक बहुत बड़ा गर्त माना जाता है. सच कितना अजीब है ना की जिस देश में औरत को देवी माना जाता है वहाँ उसका बचपन कभी वासना के लालसी बर्बाद कर देते है, तो कभी हमारी रूढ़िवादी सोच. क्यों बचपन आज सिर्फ एक कम्पटीशन बन कर रह गया है?
मैं यह नहीं मानती की इंडियन आइडल , यहाँ फिर नेशनल टेलीविज़न के किसी शो मैं पार्टिसिपेट करना गलत है, दरअसल यह सब बाते बच्चो को कॉन्फिडेंस देती है, ताकि उनका भविष्य सुधर सके पर क्या”बच्चो को पैसा” कमाने का जरिया बनने देना चाहिए , आजकल हर टीवी चैनेलो पर बाल कलाकारों की भरमार है. कभी बालिका बधु , तो कभी बाल विधवा . क्या बचपन इन सब बातो को समज़ सकता है. कई “माँ बाप” कहते है की अरे कौन से ज़माने में जीती है आप, आज तो “बढ़ती का नाम ” ज़िंदगी है . पर क्या यह अंतिम सत्य है? क्या बच्चे की मुस्कान उसका मासूम दिल कुछ भी नहीं.
क्यों आज कल बालपन में बच्चे ज़ुल्म की वैशियत का शिकार हो रहे है. क्यों निर्भया कांड मैं दोषी एक नाबालिक भी था? यह सिर्फ कानून की हार है यहाँ फिर आज हमारी परवरिश , हमारे संस्कार हमसे ही सवाल पूछ रहे है. क्यों माता पिता को अपने ही बच्चो की परछाई इंतनी बदली बदली सी लगती है? क्या सब कुछ ठीक है , आज वर्तमान कर रहा है हमसे ही कुछ सवाल ? आँख मूँद लेने से शायद कुछ भी नहीं होगा? भविष्य अपनी शकल वर्तमान की गोद में ही दिखाना शुरू कर देता है अब यह आप पर है की आप क्या चाहते हो ? विचार कीजिए प्रशन ज़रूर करिये अपने आप से ? क्योकि मौन रहने से ज्यादा सही प्रश्न करना होता है.

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