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बच्चे भगवान का अवतार माने जाते है. बचपन मानव जीवन की नीव कहलाता है, खिलखिलाना मस्ती के पंख लगाकर सपनो की दुनिया में उड़ना यह तो बालपन की पहचान है .यह भारत का दुर्भाग्य ही है की जहाँ कृष्णा ने बचपन खेला वही कितने ही बच्चे मंदिर की सीढ़ियों पर भीख मांगते है, सड़क पर ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मागते है, जिसे साफ़ साफ़ हर आदमी गलत मानता है. पर एक दिन मैने कुछ ऐसा सुना जिसे सुनते ही मंन काप गया, होटल में एक बच्चा टेबल साफ़ कर रहा था. बाहर उसकी माँ पकोड़े का ठेला लगाए बैठी थी. मैंने उसकी माँ से पूछा आप अच्छी खासी है काम करती है बच्चे को पढ़ने दीजिये खेलने दीजिये , कपि किताब दीजिये यह क्या एक गन्दा कपडा देदीया टेबल साफ़ करने को, बच्चे ने कहा आप मम्मी से क्यों कुछ कह रहे है ? छोटे छोटे बच्चे टीवी में भी काम करते है न, बात अलग थी पर १००% सही , की गरीब के बच्चे का काम बाल मज़दूरी, और मिडिल क्लास या अपर क्लास का काम उनका टैलेंट . वाह क्या परिभाषा है?
कभी हम सब ने सोचा है की चाय का कप लेकर या खाने की थाली लेकर हम जिन “डेली सोप्स” का मज़ा लेते है उसमे काम करने वाले बच्चे भी पढ़ना चाहते है. या फिर जब बच्चे बेस्ट चाइल्ड एक्ट्रेस या एक्टर अवार्ड जीतते है तो हम सब ताली बजाते है . बच्चो को डांस करते देखना और फिर उनके टैलेंट की तारीफ करना गलत नहीं है पर माता पिता भगवान का रूप कहलाते है. जीवन का आधार परिवार की जड़ कहलाते है. एक समय तक यह माता पिता की ज़िम्मेदारी है की वो बच्चो का लालन पालन करे , पर कभी कभी माता पिता यह भूल जाते है की सपने एक दूसरे पर थोपने नहीं चाहिए . पहले के समय में बच्चे एक दो फिल्म या कुछ छोटे छोटे रोले करते थे? पर अब तो पूरा सीरियल बच्चो पर आधारित होता है. अब चाहे बालिका वधु हो या बचपन में बाल मज़दूरी से पढ़ने की उड़ान आखिर १०० से ज्यादा एपिसोड करके १० १० घंटे काम करके कौन पढ़ाई कर पाता है? और लत तो लत होती है, खुद बच्चे भी कई बार चकाचौध की तरफ आकर्शित हो जाते है? क्या कभी यह सोचा है हमने की कुछ बच्चो की सफलता को देख जब एक बड़ी तादात में लोग “मुंबई” भागते है तब क्या होता है? कितने ही छोटे बच्चे गलत हाथो में पड़ जाते है. भीख मांगते है और लडकिया शायद वो जिन काले अंधेरो में खो जाते है वहां से तो ज़िंदगी ही श्राप बन जाती है. बाल रूप भगवान की पहचान उनकी परछाई बन घर पर आता है, जिसकी सूरत पर सिर्फ और सिर्फ मासूमियत होती है और छोटी छोटी हथेलियों में संसार को समाने की ताकत. गलत काम या फिर “मज़दूरी” की सूरत बदल जाने से वो “बाल श्रम” से कुछ और नहीं हो जाता . किसी नेशनल लेवल प्रोग्राम में पार्टिसिपेट कर कॉन्फिडेंस बढ़ाना अलग बात है, पर बच्चो को पैसा कमाने का जरिया समज़ना यह गलत है, समाज के साथ वैल्यूज के साथ . और साथ ही भगवान के उस वरदान के साथ भी जो औलाद के रूप में इंसान को मिलता है . बचपन को मत छीनो, जीनो दो . जो बुर्जगो की दुआ बनकर ज़िंदगी में आते है, उन्हें खोने मत दो दुनिया की भागदौड़ में. यह सिर्फ ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि कर्तव्य भी है. हम सबका आप खुद ही विचार कीजिए………………………. और हा एक बात सदा ही याद रखे की हमारे देश में मानव जीवन को चार अत्यंत सुन्दर आश्रमों में बाटा गया है जैसे की जनम से २५ साल तक का समय बृहमचर्य आश्रम माना जाता है जिसके अनुसार बच्चे को गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा लेनी चाहिए और फिर गुरु की सेवा कर आगे आने वाले जीवन के लिए तैयार होना चाहिए , फिर २५ से ५० वर्ष का समय ” गृहस्थ ” जीवन कहलाता है जहां उसे समाज तथा परिवार की पूर्ण ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए . अब आप बताइये की जब हमारी जड़ो में हमारे पूर्वजो ने बालपन को यहाँ तक कम से कम २५ साल तक गुरु को प्रमुख बताया है , वहा बच्चो का १० १२ साल की उम्र से काम करना और फिर टैलेंट की पहचान बनना क्या हम सब के लिए एक विचारणीय प्रश्न नहीं है ? आप खुद ही सोचिये ?
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