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समय का भवर

deepti saxena
deepti saxena
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समय का चक्र, बहाव सदा एक ओर नहीं होता , मैंने बहुत सारे कामयाब लोगो की कहानिया पढ़ी, हर कहानी में एक बात समान थी, की परिवार की ताकत प्यार, अपनों का साथ कैसे छोटी छोटी उमीदो को जन्नत बना देता है, आज रिश्तो पर काव्य लिख दिए जाते है, कभी पति पत्नी पर, कभी माता पिता कभी दोस्तों पर, बॉलीवुड जगत में भी प्यार , दोस्ती और रिश्तो की आहट में कभी कोई कमी नहीं होती. पर हम इस भाग दौड़ की ज़िंन्दगी में शायद कुछ महत्व पूर्ण बातो को पीछे छोड़ देते है, जैसे आज दो लोगो की ज़िंदगी में इतनी भीड़ है, इतनी भागा भागी है, की प्यार अपना पन कही मर सा गया है ? आज हर किसी को जल्दी है, जैसे की नाम बनाना है, आगे बढ़ना है, कदम से कदम मिलाना है ज़माने के साथ चलना है, टेक्नोलॉजी में किसी से भी हम पीछे ना हो, इसके लिए क्लास्सेस कोचिंग पता नहीं क्या क्या करते है?
पर जो चीज़ हम सबसे कही खो गयी है वो है अपने अंदर की मासूमियत , बचपन को शायद मानव जीवन की नीव कहा जाता है , सपनो से भरा मंज़र, कितने सपने होते है है बचपन में हमारी आखो में, माता पिता का प्यार उनकी दी हुई सुरक्षा , माता पिता के लिए बच्चे उनका संसार होते है, वो सुना भी होगा आप सबने, की बच्चे “माता पिता की आखो ” का तारा होते है, पर आज शायद सब बदल सा रहा है, मुझे याद है अभी कुछ दिनों पहले मैंने एक ” हॉलीवुड ” मूवी देखि ” जिसमे बच्चा अपने माता पिता के पास समय के आभाव के कारण ” मगरमच्छ से दोस्ती ” करता है, उन्हें खाना खिलता है, पढ़ कर शायद हंसी आये , पर बच्चा अन्त में एक ही बात कहता है, ” मैं हमेशा अकेला था न माँ के पास समय था, न पापा के पास तो क्या करता ” कहा जाता? सोचिये कल इस परेशानी से हमारा देश भी ग्रसित हो सकता है. फिर मनोचिक्त्सा को आगे बढ़ने एक मौका और मिल जाएग़ा. बात छोटी सी है सारी समस्या समय से ही शुरू होती है, वही खत्म हो जाती है.
हमारे देश की धरोहर संयुक्त परिवार थी, वो बदलते बदलते एकल परिवार में हो गयी, आज हर कोई अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है, पहले देश में प्ले स्कूल नहीं हुआ करते थे. क्योकि दादी बाबा ताई ताऊ चाचा चाची इन सबके इर्द गिर्द ज़िंदगी घूमती थी. आज हम सब इंटरनेट से जुड़े है, यू एस ऐ, यू के, ऑस्ट्रेलिया , यूरोप , आज दुनिया का कोई कोना दूर नहीं है, सारी दुनिया मुट्ठी में लगती है, पर पड़ोसी के क्या हाल है यह हम नहीं जानते , इस बात पर एक किस्सा है? एक बार एक बन्दे ने बैंक में अकाउंट खुलवाया कुछ कारण वश बैंक को जाँच के लिए पड़ोसियों से पूछ ताछ करनी पडी , मज़े के बात तो यह है की वो आदमी अपनी सोसाइटी में 3 साल से रह रहा था, और आस पास कोई उसे नहीं जानता था लोग सिर्फ कार वाले भईया के नाम से जानते थे, वैसे तो यह सब बाते ” रिश्तो का अजीब भूल भूलईया ” लगती है. पर सच तो यही है की अब रिश्तो में दूरिया आ सी गयी है, या तो हम भीड़ में खो से गए है. या अपने आप में इतने मगन है की किसी बात की सुध नहीं है. बदलाव अच्छी चीज़ है. पर कभी भी अपने अस्तित्व से अपनी जड़ो से दूर मत होइए. कभी कभी कुछ बातो के जबाब भविष्य के गर्त में छुपे होते है. आज हम कितना भी नकार दे . और कहे की इन सब बातो में कोई दम नहीं है पर वास्तव में समय का भवर हमसे प्रश्न ज़रूर पूछता है? रिश्ते सिर्फ किताबो की खबसूरती बढ़ाने को नहीं होते, यह तो मन का धागा है, जिसकी डोरी अटूट होती है. पर आजकल लोग इन्हे किताबो में पढ़ना पसंद करते है, या फिर अपना धंधा बना कर बेच देते है, मेरे मन का डर सिर्फ सिर्फ यही कहता है की कही संस्कार और अपने पन की इस धरती पर से अपनों का साथ कही छूट ना जाये, कही हमारे देश में भी लोग अकेलेपन से हार कर आत्महत्या ना करने लगे. क्योकि वास्तव में आज भी चाहे आप “प्रतियोगिता दर्पण ” पढ़ो या अन्य कोई किताब सफलता के जश्न में तो अपनों का ही साथ दिखता है. मेरा सवाल सिर्फ और सिर्फ यही की जब कला आने वाले समय को पहचान सकती है. एक लेखक सदियों के अंतराल को समज़ता है तो फिर हम इन सवालो के जबाब क्यों नहीं ढूंढ़ते ? क्योकि आज भी गाव में रहने वाला हर सदस्य एक दूसरे को जानता है पर शहरो में लोग अपने पडोसी को भी नहीं पहचानते?
सोचो तुम , पहचानो समय की ताल को. अपनों से ना नाता तोड़ो
वो जीवन ही क्या जिसमे किसी का साथ ना हो?
वो बगिया ही क्या? जो फूलो से महकी ना हो.

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