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सोचो तो सही ?

deepti saxena
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समय के साथ सब कुछ बदलता है, लोगो के सोचने का तरीका, समाज की मान्यताए , ज़िंदगी ज़ीने का तरीका, एक समय था जब लडकिया सिर्फ और सिर्फ घर की ही शोभा बढ़ाया करती थी, पर आज चाहे मेडिकल हो, इंजीनियरिंग हो, या देश की सबसे बड़ी सेवा आईएएस , लडकिया हर जगह आगे है, आजकल तो लडकिया , खेल कूद में भी देश का नाम रोशन कर रही हो, वो चाहे मैरी कॉम हो, या फिर बैडमिंटन का तारा सानिया नेहवाल. सब ने देश का नाम रोशन करके सिद्ध कर दिया की लडकिया किसी से भी पीछे नहीं है, देश का गौरव है, देश की शान है, फिल्म जगत की” प्रियंका” ने मैरी कॉम करते समय यही कहा था की एक ” हीरोइन” भी मूवी की स्टार हो सकती है, लड़कियों में वो चमक है जिससे सिर्फ और सिर्फ एक्टिंग के दम पर वो अपना लोहा मनवा सकती है, जैसा रानी ने ” मर्दानी ” में काम किया, जैसा “विद्या ” ने ” कहांनी” में किया , देखा जाये तो वास्तव में आज समय ने करवट ले ली है, पर शायद कभी कभी अपनी ” जड़ो” को देखना ज़रूरी हो जाता है, क्योकि पेड की मज़बूती उसकी ” जड़ो” पर निर्भर करती है, मैं मानती हु की आजकल सब कुछ बदल गया है , पर कही न कही समाज आज भी पुरानी बातो से जुड़ा है, जैसा की यह एक बहुत आम बात है की शादी के बाद जब एक लड़की नौकरी के लिए जाती है, तो उससे पूछा जाता है की क्या अब अगर कभी संडे को काम पर आना पड़ा तो आप आजाएग़ी , शायद लड़को से यह कभी नहीं पुछा जाता बल्कि जब ” पति” छुट्टी के दिन काम पर जाये तो सब यही कहते है की नाश्ता अच्छे से कराना, जॉब इंटरव्यू के समय लड़की को उसी शहर का चुनाव भी करना होता है, जहा उसका पति काम करता है, कभी ” लड़को” से क्यों नहीं पुछा जाता की ” शादी के बाद वो ” ज़िम्मेदारी उठा लेग़े या फिर नहीं, कभी लड़के अपनी पत्नी के लिए दूसरे शहर में आकर जॉब क्यों नहीं ढूंढते , शादी के बाद विदाई , फिर माँ बनने के बाद अक्सर लड़कियों से उम्मीद होती है, की वो ज़िन्दग़ी के बदलते समय के साथ आगे बढ़ते हुए परिवार को सम्भालेग़ी, हमारे संस्कारो में इतना अंतर आज भी क्यों है? की आज भी एक ” बुद्धि जीवी ” वर्ग तक इंटरव्यू के सवाल में ही अंतर कर देता है, जब परिवार और बच्चों के प्रति माता पिता दोनों की ज़िम्मेदारी बनती है, तो एक ही इंसान अपने सपनो के लिए क्यों संघर्ष करे , आज तक कभी मैने यह नहीं सुना की कोई परिवार अपने बेटो से यह कहे की आजकल लडकिया भी काम करती है तो तुम भी घर का काम करना सीखो, यह सुनते ही” जोरू का गुलाम” और पता नहीं कैसी कैसी मान्यताए सामने आ जाती है, जब एक लड़की अपना रोल बदल रही है , घर सिर्फ सम्भाल ही नहीं बल्कि चला भी रही है, तो लड़के इस दोहरी ज़िम्मेदारी का हिस्सा क्यों न बने, कुछ लोगो को लगेगा की यह तो फालतू बात है, पर समाज हमेशा अपने संस्कारो , रीतियों पर पुनःविचार करने को बाध्य होता है क्योकि ज़रूरी नहीं की जो बात कल सही थी वो आज भी सही हो, हम हमेशा कहते की एक ” कामयाब ” आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है, क्योकि उनके माता पिता के लिए घर में” बहु” है बच्चो के लिए ” मम्मी ” है और उनके लिए ” पत्नी ” है, कितना अच्छा हो जब हम यह भी कह सके की ” आज से कामयाब औरत के पीछे ” उसके पति का हाथ होगा, क्योकि कोई गाड़ी अपने दोनों पहियो के बिना नहीं चल सकती, आज ज़रूरत है हमें फिर से सोचने की , बचपन में मेरे पापा कहा करते थे की कोई भी ” परिवार ” किसी एक आदमी से पूरा नहीं होता, परिवार में माता पिता बच्चे, बड़ो सबकी ज़रूरत होती है, जब लडकिया भी उसी सम्मान के साथ पढ़ाई करती है , उसी ज़ज़्बे से ज़िन्दग़ी में आगे बढ़ना चाहती है जैसी की लड़के, तो हर बार भूमिका बदलने पर लड़कियों के पाले में ही अधिक ज़िम्मेदारी क्यों आये? सिर्फ आर्थिक रूप से ही मज़बूत होने से ही लड़कियों की परेशानी खत्म नहीं होगी , मन से समाज को अपनी मान्यताये बदलनी होगी, आप खुद ही सोचिये ………………… की क्या इन बातो की ज़रूरत है या नहीं…………………….

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